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स्वतंत्रता सेनानी ऊषा मेहता और उनके संघर्ष से प्रेरणा

By राजेश ओ.पी. सिंह

इस धरती पर यदि सबसे ज्यादा अन्याय किसी के साथ हुआ है तो वो हैं महिलाएं। महिलाओं को हर जगह से गायब करने का काम पुरुष प्रधान समाज ने बड़ी सावधानी पूर्वक किया है। यदि महिलाओं को इतिहास में सही सही जगह मिल जाती तो निश्चित रूप से सभी समाजों की स्थित आज कुछ और बेहतर होती।

बात यदि हम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की करें तो इसमें अनगिनत महिलाओं ने अपना योगदान दिया और आजादी मिलने तक लड़ती रहीं, वो बात अलग है कि इनमें से बहुत कम महिलाएं ही हैं जिन्हें इतिहास के पन्नो के कहीं कोनों में थोड़ी बहुत जगह मिल पाई वहीं अधिकांश महिलाएं गुमनामी के अंधेरे में डूबा कर भुला दी गईं। इन्हीं गुमनामी के अंधेरे में भुलाई गई महिलाओं में “ऊषा मेहता” भी एक नाम है, जिनका पूरा जीवन स्वतंत्रता आंदोलन को समर्पित रहा परंतु जितना सम्मान उन्हें मिलना चाहिए था उतना नहीं मिला।

ऊषा मेहता ने महज 7-8 वर्ष की बाल्यवस्था से ही अपने आजाद इरादे जगजाहिर करना शुरू कर दिए थे। पहला प्रतिरोध इन्होंने तब दिखाया जब अंग्रेजी प्रशासन द्वारा उनके अध्यापक को पीटा जा रहा था और सारे बच्चे डर कर दूर भाग रहे थे तब ये बच्ची भागने की बजाए पुलिस की लाठी पकड़ कर अपने अध्यापक को बचाने की कोशिश करती है।

दूसरा प्रतिरोध तब सामने आता है जब अंग्रेज अधिकारी की कार से एक बच्ची कुचले जाने पर उसके विरोध में प्रदर्शन कर रहे क्रांतिकारियों पर पुलिस लाठीचार्ज करती है तो 22 वर्षीय ऊषा उस मृत बच्ची और उसकी मां को अपनी सूझबूझ से भीड़ से बाहर निकाल पाने में सफल रहती है और यहीं से उसे न्यौता मिलता है कांग्रेस दफ्तर में प्रवेश करने का और सक्रिय रूप से स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने का।

तीसरा प्रतिरोध उनके जीवन में लाया सबसे कठिन क्षण, जब उनके पिता ने उन्हें भावनाओं के आगोश में लेकर क्रांति के रास्ते पर जाने से रोकने की कोशिश की। वो ऊषा को उसकी शिक्षा में प्राप्त उपलब्धियों के बारे में चेताते हैं, उसे जीवन में कुछ बनने के लिए प्रेरित करते है और जब इनका असर नहीं होता तो वो उसे अपने सर पर हाथ रखवा कर अपनी कसम दिलवाते है। ऊषा अपने पिता को कसम तो दे देती है परंतु अपने देश की आजादी के लिए ली गई कसम के आगे पिता को दी गई कसम की उपेक्षा करती है। ये घटना हमें बता रही है कि जब आपके सपने बड़े हों तो उनमें अनेकों रुकावटें जरूर आती हैं, परंतु आपको अपने लक्ष्य से पीछे नहीं हटना चाहिए बेशक कुछ भी हो जाए।

1942 के “भारत छोड़ो आंदोलन” में सक्रिय क्रांतिकारी के रूप में भाग लेने वाली 22 वर्षीय ऊषा अपनी समझानुसार महात्मा गांधी जी के सामने ब्रह्मचर्य की शपथ ले लेती है। ये घटना दर्शा रही है कि वो कितने मजबूत इरादों से आगे बढ़ रही थी और जब अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा कर गांधी जी समेत देश के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाता है तब भी ऊषा का हौंसला डगमगाता नहीं बल्कि वो पुलिस की लाठियों का सामना करती हुई, करो या मरो का नारा लगाती हुई भारतीय झंडे को लहराने की कोशिश करती है।

इसके बाद जब सब नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया और सभी क्रांतिकारियों का आपसी संपर्क तोड़ दिया गया, अखबारों के संपादकों पर आंदोलन से संबंधित कुछ भी न लिखने का दबाव बना दिया गया तब ऊषा को एक चिंता बार बार सता रही है कि यदि हमने 1857 की क्रांति वाली भूल फिर से की तो एक बार हम फिर आजादी लेने से चूक जायेंगे। ऊषा को लगता था कि यदि 1857 में क्रांतिकारियों का आपसी संपर्क बना रहता, उन्हें समय समय पर दूसरे स्थानों की जानकारी मिलती रहती तो निश्चित रूप से वो अभिप्रेरित होते रहते और क्रांति को सफल कर देते। परंतु ऐसा नहीं हो सका और अंग्रेजों ने सफलतापूर्वक इतने बड़े स्तर के संग्राम को कुचल दिया। परंतु इस बार ऊषा ने ठान लिया था कि क्रांतिकारियों तक हर रोज जानकारी पहुंचाई जाएगी, गांधी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं के भाषणों से उन्हें प्रेरणा दी जाएगी ताकि वो कमज़ोर न पड़े और आंदोलन को मजबूती से चलाए रखें।

इसके लिए ऊषा ने “कांग्रेस रेडियो” स्थापित करने का विचार पेश किया जिसका उनके दो साथियों ने मजाक बनाया और इस विचार को मानने से इंकार करते हुए खुद को आंदोलन से अलग कर लिया, वहीं दो अन्य साथियों ने साथ भी दिया।

अब मुख्य प्रश्न था कि रेडियो बनाने में आने वाले चार हजार रुपए के खर्च को कैसे एकत्रित किया जाए, अपने सभी प्रयासों के बावजूद 9 दिनों में ऊषा और उसके दोस्त केवल 551 रुपए ही एकत्रित कर पाए। जब ऊषा का सपना धूमिल होता नजर आ रहा था तब साथ देने के लिए सामने आती हैं एक और महिला और वो महिला थी उनकी बुआ। उनकी बुआ ने अपने सारे गहने ऊषा को ये कहते हुए दे दिए कि वो बुढ़ापे की वजह से प्रत्यक्ष रूप से लाठी उठा कर स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं ले सकती इसलिए वो ये गहने लेकर उन्हें भी देशहित में अपना योगदान दर्ज करने का मौका दे। इस प्रकार ऊषा “कांग्रेस रेडियो” स्थापित करने और क्रांतिकारियों तक आंदोलन की सारी जानकारियां पहुंचाने में कामयाबी हासिल करती है।

परंतु उनके जीवन में अभी और कठिन निर्णय लेने का वक्त आ गया था, ऊषा हर शाम कांग्रेस रेडियो को चलाने लगी तो उसे घर आने में देर होने लगी। कुछ ही दिनों में ऊषा के पापा को ऊषा की गतिविधियों की भनक लग गई तो उन्होंने उसे कमरे में बंद कर दिया और बाहर आने जाने पर पाबंदी लगा दी। परंतु ऊषा कहां रुकने वाली थी, वो तो आजादी की दीवानी थी। ऊषा ने उसी रात एक पत्र लिखा और उसे मेज पर छोड़ कर घर से भाग निकली और कांग्रेस कार्यालय में चली गई। वहां उसकी मुलाकात राम मनोहर लोहिया से होती है, जिन्हें वो कांग्रेस रेडियो के बारे में बताती है और फिर आगे राम मनोहर लोहिया कांग्रेस रेडियो का प्रयोग करते हुए आजादी के मजबूत इरादों और रणनीतियों को क्रांतिकारियों तक पहुंचाते हैं।

ऊषा ने न केवल “कांग्रेस रेडियो” को स्थापित करके चलाया बल्कि इसके साथ ही लंबे समय तक इसे पकड़े जाने से बचाने में भी कामयाब रही। और अंत समय में जब पता चल चुका था कि आज जो भी “कांग्रेस रेडियो” का संचालन करेगा को गिरफ्तार कर लिया जाएगा, के बावजूद उस शाम अपने साथी के साथ लड़ाई लड़ के ऊषा ने खुद रेडियो का संचालन किया और बिना वहां से भागे गिरफ्तारी को चुना।

इसके बाद जेल में उन्हें थर्ड डिग्री प्रताड़ना दी गई और राममनोहर लोहिया का पता बताने पर जेल से रिहाई का लालच दिया गया परंतु ऊषा ने जेल में रहना पसंद किया। और उन्हें 4 वर्ष की कैद हुई। गिरफ्तारी और गिरफ्तारी के बाद जेल में रहना दोनों निर्णयों से ऊषा मेहता के आजाद भारत के संकल्प को आसानी से समझा जा सकता है।

एक समय ऐसा आया कि जब ऊषा जेल में थी तब उनके पिता भी उनके दृढ़ संकल्प के आगे झुक गए और उन्होंने अपनी बेटी को हौंसला देते हुए पत्र लिखा कि उन्हें इस धरती पर सबसे ज्यादा मान सम्मान ऊषा का पिता होने पर मिला है। वो अपनी बेटी का हौंसला बढ़ाते हुए लिखते हैं कि जैसे जब एक चिंगारी क्रांति की मशाल को जलाती है तो वह चिंगारी नही रह जाती बल्कि खुद मशाल बन जाती है और ऊषा तुम अब क्रांतिकारी नहीं, खुद क्रांति बन चुकी हो। तेरा संघर्ष ही वो पंख है जो हमें आजाद भारत की उड़ान पर लेकर जायेगा।

ऊषा मेहता द्वारा स्वंत्रता संग्राम में दिए गए सबसे प्रमुख सहयोग “कांग्रेस रेडियो की स्थापना और उसके सफल संचालन” के लिए उन्हें हमेशा याद रखा जायेगा।

आज की लड़कियों को ऊषा के जीवन और निर्णयों से प्रेरित होकर आगे बढ़ना चाहिए और अपने सपनों को साकार करना चाहिए।

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